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स्वयं से सत्य तक

~अचिंत्य

"आज़ादी की कीमत पर जो भी मिले उसे नकार दो, यही बेपरवाही है"



स्वयं से सत्य तक

“स्वयं से सत्य तक यूट्यूब चैनल के माध्यम से, अचिंत्य मूल्यवान अंतर्दृष्टियाँ, आध्यात्मिक शिक्षाएँ और जीवन के व्यवहारिक मुद्दों और समस्याओं पर अपनी राय साझा करते हैं कि कैसे अपने उच्चतम मूल्यों के साथ, बोध, प्रेम, करुणा, आज़दी और समता में जीवन जिया जाए जिससे कि व्यक्ति और समाज की समस्याओं का अंत हो सके और सबके जीवन में शांति हो।”


सबसे पहले कहना चाहूंगा कि मनुष्य के जीवन में जितनी भी समस्याएं हैं उनके लिए केवल और केवल 'मनुष्य स्वयं' ही जिम्मेदार है और किसी भी व्यक्ति के दुख के लिए वह व्यक्ति और उसका आत्म-अज्ञान ही मूल कारण है। किसी भी व्यक्ति को आप केवल परेशान कर सकते हैं, उसे चोट पहुंचा सकते हैं, उसे हानि पहुंचा सकते हैं और दर्द दे सकते हैं किन्तु यदि वह दुखी होता है तो इसका कारण केवल उसका अपना आत्म-अज्ञान है और जब तक कोई व्यक्ति इसे नहीं समझेगा और अपने दुख के लिए सदा अन्य को ही दोष देता रहेगा, तब तक वह दुख से मुक्त नहीं हो सकेगा और दुनिया की किसी भी समस्या का उचित समाधान नहीं हो सकेगा। हमें चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर झांके और देखे कि वह कौनसी चीज है जो दुख का कारण है अथवा जो दुखी है?

वक्ता का प्रयास है कि लोग स्वयं के प्रति जागरूक हों। अपनी भीतरी प्रक्रिया, संस्कारबद्धता, मान्यताओं, पूर्वाग्रहों इत्यादि बंधनों के प्रति जागरूक हों ताकि वह अपने भ्रम से बाहर आएं और दुख, समाज, देश और दुनिया की अनंत समस्याओं के मूल स्रोत के प्रति जागरूक हो सकें ताकि उसके मिथ्यात्व के बोधमात्र से ही जीव और जगत की गहन पीड़ा का अन्त हो। इसके लिए उचित शिक्षा यानी आत्मज्ञान (दृष्टा ज्ञान और दृश्य ज्ञान) ही श्रेष्ठतम और शायद एकमात्र उपाय है।


किन्तु वक्ता यह भी नहीं चाहता कि कोई भी व्यक्ति अंधा, अंधविश्वासी या आज्ञाकारी होकर उसकी बातों को मानें और उनका अनुसरण करें। आपकी जिन्दगी है, आपको जीना है तो आपको ही समझना भी पड़ेगा केवल शब्द रट लेने से कुछ नहीं होगा। वक्ता के शब्द भी वही होंगे जो आजतक आपने सुने होंगे किन्तु वक्ता के लिए वह शब्द केवल शब्द नहीं हैं, वक्ता के लिए वह केवल शब्दों का दोहराव भर नहीं है। आपके लिए वह शब्द केवल दोहराव हो सकते हैं क्योंकि उससे पहले भी आप केवल शब्दों पर ही अटक गए हैं इसीलिए अभी तक आप भी अटके ही हुए हैं। उंगली (शब्द) से चांद की तरफ इशारा किया जाता है और आप केवल उंगली पर ही अटक जाते हैं और फिर आपको लगता है कि यह वही उंगली तो है जो पहले देखी थी। हां, यह वही उंगली है किन्तु बात उंगली को देखने की नहीं अपितु उसकी है जिसकी तरफ इशारा किया जा रहा है।

वक्ता अन्य लोगों द्वारा दी गई शिक्षा पर भी बोलता है किन्तु इसलिए नहीं कि वे प्रसिद्ध हैं या बहुत लोग उनको मानते हैं अपितु इसलिए क्योंकि उन्होंने जो कहा, जो शिक्षा उन्होंने दी वह मनुष्य के लिए उपयोगी है। उनकी शिक्षा; बोध, प्रेम और करुणा से ओत-प्रोत है जो कि मनुष्य के भ्रम, बंधन और दुख का अन्त करने में समर्थ है।

बहुत समस्याएं हैं मनुष्य के जीवन में किन्तु अज्ञानवश उन्हें उत्पन्न भी मनुष्य ही करता है।

आध्यात्मिक ज्ञान और शिक्षा: एक मनुष्य की यदि सबसे पहली कोई जरूरत है तो वह है ज्ञान; आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों ही जो कि वास्तव में अलग नहीं हैं। किसी भी व्यक्ति को अन्य किसी भी जगह पर अपना समय, धन और ऊर्जा लगाने से पहले सही शिक्षा के लिए उसका उपयोग करना चाहिए। आज जैसे-जैसे मनुष्य के पास विज्ञान और टेक्नोलॉजी आधारित क्षमता बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे उसका मनुष्य के जीवन से संबंधित प्रत्येक क्षेत्र में भयानक रूप से दुरूपयोग भी होता जा रहा है। समाज में अंधविश्वास, गलत और भ्रामक सूचनाएं इत्यादि बहुत तेजी से और भारी मात्रा में बढ़ते जा रहे हैं। धर्म, जाति, राजनीति इत्यादि के नाम पर कट्टरता, हिंसा, भेदभाव बहुत तेजी से पग पसारते जा रहे हैं। ऐसे ही अनेक कारणों से मनुष्य के लिए सही शिक्षा बहुत ही जरूरी हो गई है। मनुष्य यदि नहीं समझता है कि उसका तन, उसकी इंद्रियाँ, उसका मन, विचार, भावनाएं, वृत्तियाँ आदि कैसे काम करते हैं, तो वह बहुत आसानी से समाज के कुछ लुटेरों और शोषकों का शिकार हो जाएगा और सबसे पहले वह स्वयं का शिकार हो जाएगा। अतः मनुष्य को जागरूक करने के लिए और उसके दुख के अंत के लिए उसे जरूरत है बोध/समझ की जो कि स्वयं को जानने-समझने से ही आएगी।

जलवायु परिवर्तन: आज की चुनौतियों में यदि जलवायु परिवर्तन को सबसे बड़ी चुनौती कहा जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। वैज्ञानिकों के अनुसार हम छठे सामूहिक विलोपन (sixth mass extinction) की तरफ बढ़ रहे हैं। अगर आश्चर्य की कोई बात है भी तो वो यह है कि यह जो सामूहिक विलोपन का खतरा है इसके लिए मनुष्य जिम्मेदार है क्योंकि मनुष्य इतना अधिक भोगी होता जा रहा है कि आज यह खतरा पृथ्वी पर उपस्थित लगभग समस्त प्रजातियों के अंत का कारण हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की समस्या के लिए जिम्मेदार प्रमुख कारण है मनुष्य का बेइंतहां भोगवाद। यह भोग तीन तरह से बहुत बढ़ा है एक; मनुष्य की जनसंख्या का आवश्यकता से अधिक होना। दूसरा; आवश्यकता से अधिक जिनके पास धन और ताकत है, उनके भोग में बहुत वृद्धि होना और तीसरा कारण है; दूध, माँस, लैदर इत्यादि पशु आधारित पदार्थों के लिए गाय, भैंस, भेड़, बकरी, मुर्गे इत्यादि को कृत्रिम रूप से प्राकृतिक जरूरत से ज्यादा पैदा करना और उनके रहने, चरने और खाने के लिए जंगलों और जल का दोहन। ऐसी ही अन्य अनेक समस्याएं हैं जो अब बढ़ती जा रही हैं। किन्तु इसका समाधान क्या है? इसका एकमात्र समाधान है आध्यात्मिक जागृति और सही शिक्षा क्योंकि मनुष्य की जो भीतरी अपूर्णता है, जिसको भरने के लिए उसने इतनी विकट समस्या को पैदा कर दिया है, वह केवल आत्मज्ञान से ही हट सकती है। जितनी तेजी से आप प्रकृति की किसी भी व्यवस्था को नष्ट करेंगे उतनी ही तेजी से सबकुछ नष्ट होता चला जाएगा और तुम भी नष्ट हो जाओगे।

आदर्श: आज के यूवा की बहुत बडी़ नासमझी यह है कि उसने नासमझों को ही अपना आदर्श बना लिया है। ऐसे लोगों को उसने अपना आदर्श बना लिया है जो स्वयं से ही असंतुष्ट हैं। अपने अज्ञान में युवा ने अपने शोषकों को ही अपना आदर्श बना लिया है। जो लोग आज प्रकृति के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं, जो जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं, जो समाज में अंधविश्वास, नशा और सट्टेबाजी को बढ़ावा देते हैं, जो झूठी और भ्रामक सूचनाएं लोगों में फैलाते हैं; वही लोग आज समाज के अधिकांश लोगों के मन के मालिक बने हुए हैं। इसी तरह की अनेक समस्याओं को केवल उचित शिक्षा द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है किन्तु यह इतना आसान भी नहीं है। प्रत्येक जागरूक व्यक्ति को अपनी निजी जिन्दगी से बाहर निकलकर, जो जाना है उसे जीवन बनाकर; लो जलाने का काम करना होगा।

समाज नहीं व्यक्ति: मनुष्य के जीवन से संबंधित जितनी भी समस्याएं हैं उनके मूल में व्यक्ति है और व्यक्ति को बदले बिना किसी भी तल पर लाया गया कोई भी सुधार कार्य सफल नहीं हो सकेगा। परिवार, समाज, देश, संगठन, राजनीतिक पार्टियां, संप्रदाय, जाति इत्यादि अपने आप में कुछ नहीं होते हैं, इन सबके मूल में मनुष्य होता है। मनुष्य वह ईंट है जिसके बल पर देश और समाज रूपी महल टिका हुआ है। यदि ईंटे यानी मनुष्य ही कमजोर हैं, तो मजबूत महल (व्यवस्था) बन ही नहीं सकता। जब तक व्यक्ति भीतर से हिंसक है तब तक बाहर हिंसा समाप्त नहीं हो सकती केवल नाम-रूप बदल जाते हैं। जब तक आप यानी व्यक्ति हिंसक और भृष्ट हैं, भ्रमित और संस्कारबद्ध हैं, पूर्वाग्रहों और अंधविश्वास से भरे हुए हैं, आत्म-अज्ञान और मान्यताओं-छवियों के गुलाम हैं; तब तक आज़ादी के नाम पर आप केवल मालिक बदलते रहेंगे, क्रांति के नाम पर सरकार, नियम-कानून और नेता बदलते रहेंगे, बदलाव के नाम पर आप नौकरी, वस्त्र, मकान, गाड़ी, सड़कें बदलते रहेंगे किन्तु इनमें से कोई भी बदलाव मनुष्य को उसके भ्रम, भय, बंधन और दुःख से मुक्त नहीं कर सकता और ना ही पशु, पक्षी, प्रकृति को शोषित होने से मुक्त कर बचा सकता है। जब तक व्यक्ति के भीतर बोध, प्रेम, करुणा, संवेदनशीलता नहीं होगी तब तक वह स्वयं दुखी रहेगा और दुख ही बांटेगा। व्यक्ति के भ्रम हटें और उसके जीवन में बोध, संवेदनशीलता और करुणा का आविर्भाव हो, उसी के लिए हम प्रयासरत है। हमारा प्रयास देश, दुनिया, धर्म अथवा समाज को बदलने का नहीं है अपितु व्यक्ति में मूलभूत रूपांतरण लाने का है। वक्ता का प्रयास आपको देश, धर्म, जाति इत्यादि से मुक्त कराना नहीं है अपितु भ्रम से आज़ाद कराने का है क्योंकि जिसके भ्रम हटते जाते हैं फिर वह आग होता जाता है और आग सारे बंधनों को जला डालती है। फिर जो भी व्यर्थ है सब हटता जाता है। यह कमजोरियां, जाति, संप्रदाय, मान्यताएं, रूढ़ियां, पूर्वाग्रह इत्यादि उसके जीवन से वैसे ही खिरते जाते हैं जैसे जड़ें कट जाने पर पेड़ के पत्ते सूखकर खुद ही खिर जाते हैं।

भेदभाव: किसी भी वस्तु का अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, सबकुछ एक-दूसरे के साथ एक है, फ़िर कैसा भेदभाव? सारे भेद अज्ञान जनित मान्यताओं और संस्कारबद्धता से आ रहे हैं। किसी भी तरह का भेदभाव या सीमा मनुष्य को कभी भी आज़ाद नहीं कर सकती। किसी विदेशी सरकार से मुक्त हो जाने को ही आज़ादी मान लेना कोई आज़ादी नहीं है, यह तो केवल मालिक बदलने जैसी हरकत हुई। तुम्हारा पहला और एकमात्र मालिक तो वह भ्रम है जिसमें तुम जी रहे हो बाकी अन्य बंधन फ़िर बचते नहीं हैं मगर हम उनकी बात नहीं करते और मूर्खतापूर्ण मुद्दों में उलझे रहते हैं, शायद जानबूझकर भी हम स्वयं को आत्म-प्रवंचना में रखते हैं। हम सीमाओं पर हो रहे युद्ध की बात करते हैं मगर वह युद्ध शुरू होते हैं एक ऐसे व्यक्ति से जो भीतरी तौर पर बुरी तरह से बर्बाद है, जो गुलाम है अपने ही मस्तिष्क की संस्कारबद्धता का। अतीत यानी अतीत की मुर्दा छवियां, मान्यताएं, परम्पराएं, विश्वास, संप्रदाय, संस्कृति, जाति, कुल, लिंग भेद, रंग भेद, परिवार, देश, नाम, अनुभव, उपलब्धियां इत्यादि ही उसके मन के मालिक बने हुए हैं और वह व्यक्ति कोई अन्य नहीं बल्कि हम स्वयं हैं किन्तु हम उसकी बात नहीं करना चाहते। हम अपनी बात नहीं करना चाहते बल्कि दुनिया की करना चाहते हैं, हम यह नहीं देखना चाहते कि हम कैसे हैं मगर दुनिया को दोष देना चाहते हैं। हम स्वयं तो हिंसक, बेईमान, भ्रष्ट, झूठे बने रहना चाहते हैं मगर चाहते हैं कि समाज, देश और दुनिया इन सबसे मुक्त हो जाए! हम भेदभाव की आग अपने दिल, दिमाग और आंख में लेकर चलते हैं मगर उम्मीद करते हैं कि दुनिया में भेदभाव से संबंधित समस्याओं का अन्त हो जाए। जहां भेदभाव से तुम्हें नुकसान दिखता है वहां तुम चाहते हो कि भेदभाव न हो मगर जहां भेदभाव के दम पर ही तुम्हारी दुकान चलती है, तुम्हारे अज्ञानपूर्ण स्वार्थ पूरे होते हैं वहां तुम भेदभाव जारी रखना चाहते हो। हमें समझना होगा कि किसी भी तरह का भेदभाव किसी के लिए भी शुभ नहीं हो सकता और इसके अन्त की शुरुआत हमें स्वयं के भीतर से ही शुरू करनी होगी। भेदभाव से मुक्ति के नारे मत लगाइए अपितु उसके प्रत्यक्ष प्रमाण बनिए।

विरोध: वक्ता किसी व्यक्ति, संस्था, संगठन, वर्ग, देश, जाति, संप्रदाय, परम्परा, विश्वास इत्यादि के विरोध में नहीं है मगर भेदभाव, शोषण, अन्याय, अंधविश्वास, पाखंड, अधर्म, हिंसा, युद्ध, दुःख, गुलामी, भ्रम, अज्ञान जैसी किसी चीज के पक्ष में भी नहीं है। ऐसी कोई भी चीज जो जगत में अथवा किसी भी जीव के जीवन में (दुख, भेदभाव, हिंसा… इत्यादि) को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है, वक्ता हर उस चीज का अंत चाहता है और यदि उस चीज के अंतर्गत किसी तरह की मान्यताएं, परम्पराएं, संस्था, संगठन, संस्कृति आते हैं तो वह उसका भी अंत चाहता है। देश, जाति, संप्रदाय, लिंग, रंग इत्यादि को लेकर आपकी कट्टरता यदि जगत में दुःख, हिंसा, युद्ध, शोषण आदि को बढ़ावा देती है तो वह उसका भी अंत चाहता है। मैं आज़ादी का पक्षधर हूँ, मैं; बोध, प्रेम, करुणा, संवेदनशीलता, शांति, बंधुत्व, मैत्री का पक्षधर हूँ।

मैं ऐसा कोई दावा नहीं करता कि मेरी किसी भी बात में कोई कमी नहीं हो सकती। सीखने वाला जब तक है तब तक सीखना जारी रहता है और जब तक सीखना जारी है तब तक, कही गई पिछली बात में कमी निकलने की संभावना बनी रहती है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि मैं यह कह कर चुपचाप बैठ जाऊँ कि अभी तो मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ, अन्यथा यह भी मूर्खता होगी क्योंकि पूर्णज्ञानी कभी कोई नहीं होता और जब तक देह और जीवन है तब तक सीखना जारी रहता है। यदि कोई व्यक्ति स्वयं को पूर्ण ज्ञानी घोषित करता है तो वह जरूर झूठ बोल रहा है। ज्ञान यानी आत्मज्ञान और आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को और अधिक जानते रहना और स्वयं को जाना जाता है दृष्टा और दृश्य की हरकतों के प्रति, उनकी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं इत्यादि के प्रति जागरूक रहकर। अतः जब तक दृष्टा और दृश्य है तब तक जानना जारी रहेगा। इसलिए जानते चलो और जीते चलो। जागते चलो और जगाते चलो।

शब्द: कुछ शब्द जो मुझे प्रिय हैं और मैं चाहता हूँ कि वे हर किसी के जीवन में पूरी तरहं जीवंत होकर आएं; समझ, बोध, आज़ादी, प्रेम, करुणा, संवेदनशीलता, बेपरवाही, होश, जागरूकता, सपष्टता, सरलता, सहजता, शांति…

आज़ादी: ऐसा कोई जीव नहीं है जिसे आज़ादी से प्रेम ना हो। प्रेम भी छोटी चीज है आज़ादी यानी मुक्ति के सामने क्योंकि प्रेम भी होता है तो आज़ादी से ही। अधिकांश लोग यह मानते हैं कि अपनी मर्जी से कुछ करने को आज़ादी कहते हैं किन्तु मन-मर्जी करने का मतलब भी आज़ादी नहीं होता है, गुंडागर्दी करने को आज़ादी नहीं कहते हैं। जिस भी चीज को आप आज़ादी समझ रहे हैं, क्या वह आपकी बेचैनी को मिटा देती है? मन-मर्जी करने से या गुंडागर्दी करने से, अपनी मर्जी से कोई काम करने से अथवा कुछ भी करने से यदि आपके दुख, भय, पीड़ा, अपूर्णता का अंत नहीं होता है तो जिसे भी आप आज़ादी समझ रहे हैं वह आज़ादी नहीं है। दूसरों के शोषण, मालकीयत पर आधारित आज़ादी कोई आज़ादी नहीं है। आज़ादी के आधार में होता है बोध, प्रेम करुणा और संवेदनशीलता और यदि आपकी आज़ादी में यह नहीं हैं तो आपकी आज़ादी केवल बर्बादी है।

शिक्षा: जिसने तुम्हें मुक्त किया वही तुम अन्य को बाँट दो; बोध क्योंकि कोई भी मनुष्य मूल रूप से पृथक नहीं है, सब एक ही समन्दर की लहरें हैं। इसलिए जो तुम्हारे लिए सबसे अधिक मूल्यवान है, जिसने तुम्हें आज़ाद किया, जो तुम्हारा पथ-प्रदर्शक है, वही तुम सबमें बाँट दो। वक्ता के पास जो सबसे कीमती और सबसे ऊँचा है, वह शिक्षा के रूप में आप तक ला रहा है।

संबंध: संबंध ही जीवन है और बोध, प्रेम, करुणा, संवेदनशीलता उसके आधार। मैं समझता हूँ कि व्यक्ति यदि संबंधित होना सीख ले तो उसके जीवन की समस्त समस्याओं का अंत हो जाएगा। संबंध का अर्थ केवल व्यक्ति से संबंधित होना भर नहीं है अपितु जो कुछ भी उसके लिए उपलब्ध है; वस्तु, व्यक्ति, विचार, पशु, पक्षी, भोजन, धन, पद, ताकत इत्यादि सभी से है। यानी समस्त प्रकृति से मनुष्य यदि सामंजस्यपूर्ण संबंध बना सके तो कोई समस्या नहीं रह जाएगी। हमें संबंधित होना सीखना होगा।

मनोवैज्ञानिक समस्याएं: मनुष्य की मानसिक समस्याएं बढ़ती जा रही हैं किन्तु मन की प्रकृति को समझे बिना मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अंत भी नहीं हो सकता। मस्तिष्क जब तक स्वयं अपनी संस्कारबद्धता के प्रति जागरूक नहीं होता, वह और अधिक उलझता जाएगा। मनुष्य कितने भ्रम में है, उसकी मूल समस्या है मन के तल पर किन्तु वह जीवनभर दोड़ता रहता है शारीरिक सुख, सुविधा, सुरक्षा, भोग और आराम के पीछे। हमें समझना होगा की शरीर प्रकृति है, उसकी जरूरतें किसी तरह के भोग से पूरी हो सकती हैं किन्तु आपका स्वभाव है बोध और बोध के अतिरिक्त उसका अन्य कोई विकल्प नहीं है।

विद्यार्थी: जिसे हम विद्यार्थी का जीवन कहते हैं वह मनुष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है और तब जो उसने सीखा है वही उसके जीवन की दिशा और दशा सबकुछ निश्चित कर देता है। यह ऐसा समय है जब उसे बहुत कुछ चुनना पड़ता है, जीवन के कुछ महत्वपूर्ण चुनाव वह इसी समय कर लेता है जैसे; पढ़ाई का क्षेत्र, काम, रिश्ते, दोस्त इत्यादि किन्तु चुनने वाला ही यदि बेहोश है तो उसके सारे चुनाव वास्तव में किसी अन्य के होते हैं और वह केवल कठपुतली भर बन कर रह जाता है। इसलिए विद्यार्थीयों के लिए सही समय पर सही समझ बहुत आवश्यक है अन्यथा उसके अभाव में वह अपना मूल्यवान समय और ऊर्जा से परिपूर्ण जीवन किसी ऐसी जगह बर्बाद कर देते हैं जो उन्हें अधिकांशतः पछतावा, ग्लानि, हताशा, तनाव और बंधन ही देती है।

महिलाएं: वैसे तो प्रत्येक मनुष्य के लिए शिक्षा जरूरी है किन्तु उनमें भी महिलाओं के लिए बहुत ही ज्यादा जरूरी है और महिलाएं यदि शिक्षा से कतराती हैं, भागती हैं या शिक्षा से वंचित रहती हैं तो यह मनुष्य समाज के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है और उसके दुष्परिणाम इतिहास में साफ-साफ दिखाते हैं और वर्तमान में भी समस्या अभी समाप्त नहीं हुई है। एक अशिक्षित महिला शायद कभी भी अपने बच्चों की उचित परवरिश नहीं कर सकती। करेगी भी कैसे? क्योंकि परवरिश के नाम पर भोजन, कपड़े, मकान, दवाई इत्यादि शारीरिक आवश्यकताओं की आपूर्ति भर कर देना पर्याप्त नहीं होता है। बच्चों को विद्यालयों के हवाले कर देने भर से उनका जीवन बेहतर नहीं हो जाता है, वह आपकी पूरी हस्ती से सीखते हैं। परवरिश के लिए बोध चाहिये किन्तु अज्ञान के कारण उसके पास होती हैं; मान्यताएं और संस्कार, परवरिश के लिए प्रेम और करुणा चाहिये किन्तु उसके पास होती है ममता और मोह। महिला यदि स्वयं अबोध, दुनिया से अनभिज्ञ, अनेक रूपों से परनिर्भर है तो वह अपने बच्चों को और मुख्य रूप से अपनी लड़की को क्या संदेश देगी? इसलिए बहुत जरूरी है कि प्रत्येक महिला जागरूक, शिक्षित, बोधवान और आत्मनिर्भर बने। सिर्फ आर्थिक रूप से ही नहीं अपितु शारीरिक, मानसिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक और अन्य व्यवहारिक रूप से भी।

बच्चे: बच्चों की उचित परवरिश एवं सही शिक्षा एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है। यह सड़ा हुआ समाज उनके मस्तिष्क पर हावी हो और उनका मालिक बन जाए उससे पहले उन्हें इस समाज की गंदगी से बचाना बहुत ही आवश्यक है और उसके लिए माता-पिता और शिक्षक को विशेष रूप से बहुत ही जागरूक, करुणावान, धैर्यवान और बोधवान होने की आवश्यकता है। आपके बच्चों को बर्बाद होने से, मशीन होने से बचाने की जिम्मेदारी किसी अन्य की नहीं अपितु आपकी अपनी है। इसलिए जागिए, चेतिए। माता-पिता की सेवा करना बच्चों का धर्म नहीं होता है अपितु माता-पिता का धर्म होता है कि तुमने यदि संतान को पैदा किया है तो अब उसे इस काबिल बनाओ की वह एक सही इंसान बन सके, दुनिया में समस्याओं को बढ़ाने वाला नहीं अपितु उन्हें कम करने वाला बने। बच्चों पर एहसान जताने का अभिभावकों को कोई अधिकार नहीं है। आप यदि उन्हें सही जिन्दगी देने के काबिल नहीं हैं तो पहले काबिल बनिए अन्यथा उन्हें पैदा मत कीजिए। उन्हें बुढ़ापे की लाठी के नाम पर बंधन और नर्क की खाई में मत धकेलिए, वे इंसान हैं कोई लकड़ी नहीं। प्रत्येक व्यक्ति को यह सीखना होगा कि बच्चों से किस प्रकार संबंधित हों अन्यथा हम केवल उनको बर्बाद करने का काम करेंगे जो कि हम करते आए हैं और किए जा रहे हैं।

मनुष्य की दिशाहीन दौड़: प्रत्येक मनुष्य दौड़ रहा है ठहर जाने के लिए किन्तु वह तब तक नहीं ठहरेगा जब तक की उसे अपनी दौड़ की व्यर्थता ना दिखने लगे। उसे उसकी दौड़ की व्यर्थता दिखाने का ही वक्ता प्रयास कर रहा है किन्तु दौड़ की व्यर्थता जाने बिना भी दौड़ का रुक जाना एक विपरीत दौड़ है और दौड़ के रुक जाने का अर्थ यह भी नहीं है कि अब आप दौड़ेंगे नहीं? क्योंकि दौड़ बेहोशी में भी होती है और होश में भी, दुख में भी होती है और मौज में भी। मौज की दौड़ वह है जिसमें तन जहाज की भाँति दौड़े और मन लहर की भाँति समन्दर से एक हो जाए। किन्तु उसका तन भी दौड़ रहा है और मन भी दौड़ रहा है मगर अधिकांश यह नहीं समझते कि इस दौड़ का मूल कारण क्या है? कहाँ से यह शुरू होती है और कहाँ यह पहुंचना चाहती है? मनुष्य दौड़ रहा है किन्तु नहीं जानता की चाहिये क्या? बहुत कुछ एकत्रित करता है किन्तु फिर भी भीतर से अधूरा, खाली, बेचैन और अपूर्ण ही बना रहता है। अधिकांशतः बचपन से लेकर बुढ़ापे तक उसके बंधनों और दुख में केवल वृद्धि ही होती है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे उसकी प्राकृतिक सरलता, सहजता और सौंदर्य भी खोता चला जाता है। दिशाहीन होकर वह दर-दर भटकता है और जीवन भर दुख भोगकर खाक हो जाता है। मनुष्य का भ्रम, बंधन और दुख हटे, उसे सही दिशा मिले उसके लिए चाहिये गहरी समझ और स्पष्टता। मनुष्य दिशाहीन होकर दौड़ रहा है, वह दौड़ रहा है क्योंकि उसे कुछ चाहिये किन्तु जब तक उसे यह नहीं पता होगा कि वह कौन है और अभी वह कहाँ खड़ा है? तब तक उसे ना यह पता चलेगा कि उसे क्या चाहिये ना यह पता चलेगा कि वह उसे कैसे मिलेगा। यह जानना कि वह कौन है और अभी वह कहाँ खड़ा है, यही जानते रहने को आत्मज्ञान कहते हैं।

बोध: मैं समझता हूँ कि मनुष्य समझ को, बोध मात्र को जीवन का आधार जाने। बोध जिसमें नीहित है प्रेम, करुणा, संवेदनशीलता, आज़ादी और जागरूकता। ऐसा इसलिए क्योंकि समझ का संबंध किसी खास जाति, संप्रदाय, लिंग, देश, उम्र, धन, पद इत्यादि से नहीं होता है अपितु वह हर किसी के लिए उपलब्ध है। समझ किसी भी तरह की सीमाओं से मुक्त है, जो उसके लिए उपलब्ध होता है वह भी उसके लिए प्रकट हो जाती है। अमीर अथवा गरीब को लेकर जो आपकी मान्यताएं हैं, बोध उससे भी मुक्त है। धन से हो सकता है कि आप दुनिया की हर चीज को ख़रीद लें, हर व्यक्ति को ख़रीद लें लेकिन बोध, प्रेम, करुणा जो कि एक ही हैं, अमूल्य हैं। आप धन से इन्हें नहीं ख़रीद सकते। यह हर उस व्यक्ति के लिए उपलब्ध है जो मिटने को राज़ी है, जो अपनी छूद्रता को छोड़ने के लिए तैयार है। अहं की धूल हटने के साथ ही यह प्रकट होने लगता है, उसके समक्ष अमीर-गरीब, काला-गौरा, उम्र से छोटा-बड़ा, राजा या रंक कुछ भी नहीं चलता। बोध का अभाव ही मनुष्य के जीवन में भ्रम, बंधन, भय, कमजोरी, शोषण और दुख का कारण है। व्यक्ति से पहले बोध को महत्व दें।

जागरूकता, सत्य और मुक्ति: यदि सच्चाई के प्रति आपमें प्रेम नहीं है, यदि आपमें ईमानदारी नहीं है और संघर्ष के लिए यदि आप तैयार नहीं हैं, तो सत्य, जीवन, बोध, बल, आनंद और सौंदर्य; कुछ भी आपके लिए नहीं है। जब तक आप अपने भ्रम, अपने दुख और भय, अपनी मान्यताओं और संस्कारबद्धता को नहीं देख-समझ लेते, जब तक दैनिक जिंदगी और संबंधों में आप अपनी क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं, सोंच, चुनावों, व्यवहार इत्यादि के दौरान अपनी संस्कारबद्धता, अपनी मान्यताओं, पूर्वाग्रहों को नहीं देख पाते हैं, तब तक उनसे मुक्ति सम्भव नहीं है। जागरूकता और संवेदनशीलता के साथ ही बोध और मुक्ति आती है।

दुःख: हमारे जीवन में जब दुख सामने आता है तब हम दुख से मुक्ति नहीं मांगते, हम सुख माँगते हैं। हम बंधन को पकड़े रहना चाहते हैं किन्तु आज़ादी भी मांगते हैं। हम गुलामी और शोषण से मुक्ति चाहते हैं किन्तु मालकीयत भी बनाए रखना चाहते हैं। इस भ्रम-जाल के प्रति मनुष्य को जागरूक करने का ही हम प्रयास कर रहे हैं। वास्तव में यह काम हम सबका है, हम सबके द्वारा है और हम सबके लिए है। इसलिए इस काम को हम सबके ज्ञान, जानकारी, बुद्धिमत्ता, समझ, संसाधन, ध्यान और ऊर्जा की आवश्यकता है।



अचिंत्य


जिस चीज से मैं तुम्हें मुक्त कराना चाहता हूँ, पहचान रूपी जिस अतीत और बंधन से तुम्हें आज़ाद कराना चाहता हूँ, वही तुम मुझसे मेरी पहचान के रूप में जानना चाहते हो। ठीक है! जिस प्रकार किसी वृक्ष के फल, फूल, पत्ते, लकड़ियाँ, खुशबू, छाया, उसका सौंदर्य और जो कुछ भी उसके माध्यम से प्रकृति में बंट रहा होता है वही उस वृक्ष की पहचान होती है उसी प्रकार किसी व्यक्ति के माध्यम से लोगों में, पशु और पक्षियों में, जंगलों और पहाडों में, नदियों और समंदर में, धरती और आकाश में और इस जगत में जो कुछ भी बंट रहा होता है वही उस व्यक्ति की पहचान होती है। केवल उसी से पता चलता है कि वह कौन है? अन्यथा इन सबके अतिरिक्त यह शरीर तो फल, जल, सब्जी और अनाज इत्यादि तत्वों का एक ढाँचा मात्र है जो कि हर किसी के पास है और इसके लिए आपको ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता है, हाँ यह बात जरूर है कि आप सिर्फ इसी के लिए बहुत कुछ करते रहते हैं।

किन्तु किसी भी मनुष्य को जानने-समझने का सबसे अच्छा तरीका होता है उसके काम और उसके जीवन को देखना, प्रकृति में जो कुछ भी है उनके साथ उसके संबंध को देखना। देखो कि मनुष्य, पशु-पक्षी, नदी-पहाड़, पर्यावरण और जो कुछ भी है उन सबके साथ उसका संबंध कैसा है? क्या वह उन सबके प्रति संवेदनशील है? क्या उनके प्रति वह प्रेमपूर्ण और करुणावान है? या इनके प्रति वह हिंसक और असंवेदनशील है और इनका शोषण करने के लिए उतारू है?

वक्ता को जानने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप उसके माध्यम से हो रहे काम को देखें।

मैं उसी तरह से आपको अपना परिचय दे रहा हूँ जिस तरह मैं स्वयं को अथवा किसी भी अन्य व्यक्ति को देखता हूँ।

हम व्यक्ति को उसके अतीत के आधार पर देखने के लिए संस्कारबद्ध हैं। चूंकि हमारे पास अपनी पहचान के रूप में अपने अतीत और भविष्य की कुछ कल्पनाओं, उद्देश्यों, सपनों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, इसलिए किसी भी व्यक्ति के परिचय के रूप में अक्सर हम उस व्यक्ति का अतीत और भविष्य की योजनाएं जानने का प्रयास करते हैं ताकि उसके अतीत और अपनी तमाम मान्यताओं, छवियों, पूर्वाग्रहों, संस्कारबद्धताओं और विश्वासों के अनुसार आप यह तय कर पाएं कि अब आपको उसके साथ कैसा व्यवहार करना है?

अतीत यानी अतीत की मुर्दा छवियां, मान्यताएं, परम्पराएं, विश्वास, संप्रदाय, संस्कृति, जाति, कुल, परिवार, देश, नाम, अनुभव, उपलब्धियां इत्यादि ही हम जानना चाहते हैं मगर मैं इन बातों को कोई महत्व नहीं देता क्योंकि यह मनुष्य की केवल मान्यताएं और संस्कारबद्धता है जो कि उसके दुख, बंधन, भय, शोषण, भेदभाव और अन्याय के लिए प्रमुख कारक हैं और जो व्यक्ति इन कौरे शब्दों को ही किसी व्यक्ति की पहचान मानता है ऐसा व्यक्ति मेरे लिए निरा अज्ञानी है। यह सब तो संयोग से किसी व्यक्ति को मिल जाते हैं। मान लो कि जब तुम पैदा हुए थे तब कोई ऐसा व्यक्ति तुम्हें चुरा कर ले जाता जो किसी अन्य जाति और संप्रदाय को मानने वाला, अन्य देश का होता तो आज तुम्हारी पहचान क्या होती? पर हम चूंकि स्वयं को अतीत के चश्मे से देखते और आँकते हैं इसलिए अन्य व्यक्ति को भी हम उसके अतीत के आधार पर ही देखते और आँकते हैं। किन्तु जीवन ऐसा नहीं है। उसके लिए आपकी मान्यताओं और कल्पनाओं का कोई मूल्य नहीं है। जीवन नदी की धारा जैसा है जो सतत बहता रहता है।

मैं क्या हूँ? मैं कौन हूँ? मैं जो भी हूँ, प्रत्यक्ष हूँ। आप अपना अतीत का चश्मा उतारें तो दिखूँ। मेरे होने का अतीत या भविष्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है क्योंकि अतीत और भविष्य जैसा कुछ नहीं होता। मगर जब अतीत और भविष्य जैसा कुछ नहीं होता है तो आप जैसे, ‘कुछ नहीं’ हो जाते हैं और चूंकि आप ‘कुछ नहीं’ होने से डरते हैं इसलिए अतीत और भविष्य के रूप में स्मृति से चिपके रहते हैं।

किन्तु यह समझने के बावजूद भी यदि मैं अपनी पहचान के रूप में कुछ बताता हूँ तो उसके कुछ व्यवहारिक और तकनीकी कारण हैं। यदि आप मौन कि भाषा समझें तो फिर मैं उतना भी बताना आवश्यक ना समझूँ।

जो लोग मुझे पढ़ते या सुनते हैं उनमें अनेक लोगों को मेरी बातों में गहराई, स्पष्टाता, सहजता और सरलता दिखाई देती है तो उनके मन में अक्सर यह सवाल उठता है कि क्या आपमें कुछ अद्भुत है? या कुछ विशेष है? क्या यह समझ जन्म से ही मिलती है? क्या बोधवान लोग पैदाइशी ही समझदार होते हैं? तो मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मुझमें कुछ भी विशेष या अद्भुत नहीं है। जन्म के साथ मुझे बोध या स्पष्टता नहीं मिली और ना ही अभी मैं आपसे बहुत ज्यादा समझदार हो गया हूँ। मैं आपकी ही तरह एक इंसान हूँ, जो संभावनाएं मुझमें हैं, वही संभावनाएं आपमें भी हैं।

किन्तु आपके मन में इस तरह के सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि जिनको भी आपने श्रेष्ठ व्यक्तित्व के रूप में पाया है, समाज में जिनको भी महान कहा गया है, जो इतिहास में अमर हुए हैं, जिन्होंने भी मनुष्य के जीवन में किसी तरहं का गहरा रूपांतरण लाने में योगदान दिया है उनके बारे में जब भी आपको कुछ बताया गया है तो उनके साथ कुछ ऐसी विशेष बातें जोड़ दी जाती हैं जो की असाधारण होती हैं, चमत्कारिक होती हैं। उसके साथ ऐसी कहानियाँ जोड़ दी जाती हैं जो कि होती तो काल्पनिक और अव्यवहारिक हैं किन्तु जिनको दैवीय माना जाता है और जैसे ही एक आम इंसान इन बातों को सुनता है वैसे ही लोग उसके सामने तो झुक जाते हैं किन्तु उसके जैसा हो जाने की कल्पना भी नहीं करते क्योंकि वे उसके सामने स्वयं को बहुत साधारण, हीन और छूद्र पाते हैं।

या फिर कोई व्यक्ति ऐसा होता है जिसको जन्म के साथ ही ऐसी स्थितियां मिली, ऐसा माहौल, परवरिश और जीवन में ऐसे लोग मिले कि उसके लिए आगे बढ़ पाना और बेहतर हो पाना आसान हो गया या कुछ करने और ऊपर उठने के लिए रास्ता आसान हो गया, जो कि हर किसी व्यक्ति के लिए नहीं होता है। लेकिन मैं आपसे कहना चाहूंगा कि यदि आपमें ईमानदारी है, सच्चाई के प्रति यदि आपमें प्रेम है और संघर्ष करने के लिए यदि आप तैयार हैं तो अपनी किसी भी तरह की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक स्थिति के बावजूद भी आप अपनी संभावना को उपलब्ध होने की क्षमता रखते हैं।

जो कुछ वक्ता के माध्यम से हो रहा है उसे देखकर आपको यह सवाल भी उठ सकता है कि शायद वक्ता भी किसी तरह की प्रसिद्धि, पहचान, उपलब्धि, सम्मान इत्यादि के लिए ही बोल रहा है, शायद वक्ता भी गुरु बन कर भीड़ जुटाना चाहता है और धन अर्जित करना चाहता है। किन्तु मैं बताना चाहता हूँ कि मेरे भीतर किसी भी तरह की व्यक्तिगत प्रसिद्धि, पहचान, उपलब्धि अथवा सम्मान की कोई चाह नहीं है। किसी को भी कुछ करके दिखाने की, कुछ बन कर दिखाने की अथवा कुछ पाने की मेरे भीतर कोई कामना नहीं है। किसी भी उद्देश्य की पूर्ति के लिए में नहीं दौड़ रहा हूँ। मुझे ना तो कहीं पहुंचना है, ना ही किसी के सामने कुछ साबित या प्रमाणित करना है।

मैं फिर याद दिलाना चाहूंगा की जो कुछ भी वक्ता के माध्यम से हो रहा है वह केवल उसके होने की अभिव्यक्ति है, ठीक वैसे ही जैसे फूल के होने मात्र से खूशबू बिखरती है, फूल उसके लिए प्रयास नहीं कर रहा होता है। साथ ही एक स्वस्थ और ठीक-ठाक जीवन जीने के लिए, व्यवहारिक जरूरतों के लिए जो कुछ भी आवश्यक है उसको भी मैं नहीं नकारता। हाँ, अभी जरूर ऐसी स्थिति है कि एक स्वस्थ और ठीक-ठाक जीवन जीने के लिए जो कुछ जरूरतें हैं, उनका अभाव है। लेकिन वह तो चलता रहता है।

यदि आपको ऐसा लगता है कि वक्ता को आपसे कुछ चाहिये! तो ऐसा नहीं है। वक्ता को अपने लिए आपसे कुछ नहीं चाहिये। यह जरूर हो सकता है कि आपके लिए आपसे कुछ अपेक्षा की जाए। जैसे वर्तमान में वीडियो के माध्यम से आप वक्ता को सुनते हैं, अपने सवाल पूछते हैं इत्यादि; तो वह काम जारी रह सके और वह बेहतर हो सके, बेहतर ढंग से हो सके, उसके लिए जरूर आपसे कुछ अपेक्षा की जा सकती है। यदि आप आर्थिक रूप से अथवा किसी भी अन्य तरीके से कभी कोई सहयोग करते हैं तो वह सहयोग आप वक्ता को नहीं दे रहे हैं अपितु उसके माध्यम से स्वयं को और अपने ही जैसे अन्य लोगों को दे रहे हैं। यदि आपके सहयोग को वक्ता के द्वारा भोगवाद और विलासिता के लिए उपयोग किया जाता है, तो यह उचित नहीं है। सार यह है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए वक्ता को आपसे कुछ नहीं चाहिये किन्तु वक्ता के माध्यम से हो रहे काम को विस्तार देने में जरूर आप सहयोग कर सकते हैं। वास्तव में यह काम हम सबका है, हम सबके द्वारा है और हम सबके लिए है। इसलिए इस काम को हम सबके ज्ञान, जानकारी, बुद्धिमत्ता, संसाधन, ध्यान और ऊर्जा की आवश्यकता है।

उस वृक्ष की भाँति होकर जिएं जिसके साथ आकार कोई भी बैठ सकता है, कोई भी मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े इत्यादि। उस समन्दर की भाँति गहरे जिएं कि कोई भी आपमें गोता लगा सके और आपकी तरफ से बिना किसी भेदभाव के वही बंटे जो आप हैं। आपका प्रेम, करुणा, संवेदनशीलता सबके लिए उपलब्ध हो। आपके जीवन में आकाश जैसा खुलापन होना चाहिये। मैं इसी भाँति जीना चाहूँगा और ऐसा केवल तब ही हो सकता है जब आप किसी भी प्रकार के बंधनों को अस्वीकार कर देते हैं, हर तरह की सीमाओं को तोड़ देते हैं और सबसे पहला बंधन है आपका अपना व्यक्तिगत अहंकार, आपकी अपनी सीमित व्यक्तिगत सत्ता। आपकी सीमाएं हैं वे सारी पहचानें जो आपको दूसरों से मिली है, परिवार, समाज, शिक्षा, संस्कृति, देश, काल, वातावरण और संयोग से मिली है, शरीर के साथ मिली हैं और यही हैं जो आपको सीमाओं में कैद करके बहुत छूद्र कर देती है।

मैं चाहता हूँ कि मनुष्य बिना किसी विशेष नाम और पहचान के संबंधित होना सीखे, बिना किसी अतीत और अतीत की छवियों, मान्यताओं, पूर्वाग्रहों के संबंधित होना सीखे। मैं चाहता हूँ कि आप जब भी किसी मनुष्य से मिलें तो ऐसे मिलें कि आपके लिए यह महत्वपूर्ण ना रहे कि उस व्यक्ति कि जाति या संप्रदाय क्या है? उसका रंग, उम्र या उपलब्धियां क्या हैं? वह पुरुष है या स्त्री? वह परिचित है या अपरिचित? उसका देश कौनसा है? वह अमीर है या गरीब? यदि आवश्यकता ना हो तो उसका नाम भी आप ना पूछें और प्रत्यक्ष उससे मिलें। उसे जानने के लिए उसके अतीत का सहारा ना लें अपितु तत्क्षण आप उसे जानें। किन्तु इसके लिए जागरूकता, प्रेम, करुणा, समझ और संवेदनशीलता की जरूरत होती है। यदि हम ऐसे संबंधित हो पाएं तो किसी तरह का कोई भय, भेदभाव, शोषण, हिंसा इत्यादि कुछ नहीं रह सकता। यदि हम व्यक्ति के बारे में कोई छवि बनाए बिना मिल सकें तो जीवन आनंद, शांति और सौंदर्य से खिल उठेगा। कोई ऐसे संबंधित होता है अथवा नहीं, वक्ता को उसकी बहुत परवाह नहीं किन्तु वक्ता ऐसे ही जीता है और जीना चाहेगा। कम से कम अपनी तरफ से तो वह ऐसा ही प्रयास करता है।

हम अक्सर वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी जैसी हर चीज की छवियां बना लेते हैं। हम अन्य लोगों की तो छवियां बनाते ही हैं हम स्वयं के बारे में भी छवियां बना लेते हैं और फिर दो व्यक्ति कभी नहीं मिलते केवल छवियां मिलती हैं और एक दूसरे के प्रति प्रतिक्रिया करती हैं। देखो अपने रिश्तों में आप किस प्रकार छवियों में जी रहे हैं। अतीत के अनुभवों, सीमित जानकारियों, मान्यताओं और संस्कारों के अनुसार आपने हर किसी व्यक्ति की छवियाँ बना ली हैं और हर व्यक्ति से मिलने के लिए आपने बहुत सारे मुखोगे बना लिए हैं। उस समय स्वयं को ध्यान से देखो जब वे लोग तुम्हारे सामने आते हैं जिनको तुम अपना पति, पिता, बेटा, बेटी, माता, दोस्त, दुश्मन या रिश्तेदार कहते हो, जिनको तुम दूसरे अथवा दूसरी जाति का कहते हो और तब तुम्हें दिखाई देगा कि पल-पल तुम चेहरे बदल रहे हो। प्रत्येक व्यक्ति के सामने तुम्हारा चेहरा, हाव-भाव, व्यवहार, बात करने का ढंग सबकुछ कैसे बदल जाता है! जिनको तुम अमीर या गरीब मानते हो उनके साथ देखो कि आपके व्यवहार में कितना अंतर आ जाता है? स्त्री या पुरुष के सामने आते ही देखो कि कैसे आप बदल जाते हो? क्यों? क्योंकि हमारे पास नाम हैं, छवियां हैं, मान्यताएं और संस्कार हैं, पूर्वाग्रह और झूठा ज्ञान है और यही आपका बंधन है जिसका आपको कोई बोध नहीं। बल्कि आप ने तो अपने बंधनों को बहुत प्यारे-प्यारे नाम दे रखे हैं जैसे; जिम्मेदारी, कर्तव्य, कसमें, वादे, वचन, धर्म इत्यादि।

अगर आप इस तरह किसी व्यक्ति से संबंधित होते हैं तो आज तक आप किसी से संबंधित हुए ही नहीं हैं, अन्य का छोड़िये आप ने तो स्वयं से भी ना जाने कब मुलाकात की होगी!

कोई व्यक्ति किस प्रकार किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी अथवा प्रकृति से संबंधित हो रहा है इसी से यह समझ आ जाता है कि वह कौन है? इस बात का कोई महत्व नहीं है कि आप स्वयं को मानते क्या हैं? या अपने बारे में आप लोगों को क्या बताते हैं? या लोग आपके बारे में क्या कहते हैं? इस बात का भी कोई महत्व नहीं है कि आपका अतीत कैसा रहा है? महत्वपूर्ण यह है कि आप अभी इसी क्षण क्या हैं? अभी आप कैसे जी रहे हैं? कैसे संबंधित हो रहे हैं?

इसके बाद भी यदि आप अतीत के बारे में जानना चाहते हैं तो बचपन में मेरे कुछ नाम थे जिनमें से एक नाम था संदीप जो की आज भी तकनीकी जरूरतों के लिए प्रयोग होता है। मैं समझता हूँ कि नाम केवल एक शब्द है जो कि किसी भी बात को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है और नाम में अपने-आप में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं होता है।

ऐसा भी नहीं है कि मैंने उस नाम को त्याग दिया हो। तो संदीप का जन्म भारत के मध्यप्रदेश राज्य के सीहोर जिले के अंतर्गत एक गाँव में हुआ। हालांकि जिस दिन को आप जन्म दिन मानते हैं मैं उसे जन्म दिन नहीं मानता। आप भी यह जानते हैं कि आज के समय में किसी गाँव में ही तो बच्चे का जन्म होता नहीं है, कहीं किसी अस्पताल में हुआ होगा और जिस दिन बच्चा गर्भ से बाहर आया, क्या उसी दिन वह गर्भ में भी आया था? नहीं न। गर्भ से बाहर आने तक वह लगभग 9 महीनों का तो हो ही चुका था। फिर कैसे कह दें कि जिस दिन वह गर्भ से बाहर आया उसी दिन वह जन्मा है और जो बच्चा जन्मा भी है क्या यह वही है जो 9 महीनों पहले था? और क्या आज मैं वही हूं जो आज से लगभग 24-25 वर्ष पूर्व था? क्या हम यह भी कह सकते हैं कि बच्चा जन्म से पहले किसी अन्य रूप में मौजूद नहीं था? यह शरीर अनाज, फल, सब्जियों इत्यादि तत्वों से ही तो बना है अर्थात उन्हीं का रूपांतरण है जो खुद जल, मिट्टी, वायु जैसे तत्वों से आ रहे हैं। अतः केवल रूपांतरण हुआ है, इसमें जन्म कब हुआ। अतः एक तो इस तरह से भी जन्म की कोई तारीख निश्चित नहीं है। दूसरी बात यह है कि माता जी कभी विद्यालय गई नहीं, गाँव पर रही, अपना नाम भी आज तक वह लिखना नहीं सीख सकीं और शयाद इसीलिए शब्दों के शुद्ध उच्चारण भी वह नहीं कर पाती हैं। मुझे संदीप ना कह कर वह केवल संदी कहती हैं। पिताजी ने जरूर थोड़ी शिक्षा ली थी, उसी के दम पर वह अपना घर परिवार चला पाते थे, लेन-देन कर पाते थे और वह भी एक साधारण किसान ही रहे हैं। लेकिन आजकल हमारे लिए किसी की जन्म तारीख याद रखना जरूरी हो गया है क्योंकि किसी को यदि समय पर जन्मदिन की शुभकामनाएं नहीं दोगे तो वह रूठ जाएगा और फिर उसके माध्यम से आपके स्वार्थों की पूर्ति नहीं होगी लेकिन उनके लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी इसलिए मेरी सही-सही जन्म तारीख याद रखना इतना महत्वपूर्ण नहीं था। एक अशिक्षित और साधारण महिला है और एक व्यक्ति किसान है, तो अब क्या इनसे आप यह उमीद करेंगे कि इन्हें स्पष्ट पता हो कि किस तारीख को यह नालायक गर्भ से बाहर आया था! इसीलिए कुछ वर्ष पहले तक आधार कार्ड और अंक तालीक में भी जन्म तारीख अलग-अलग थी और दोनों में लगभग दो वर्ष का अंतराल था। एक में 1999 थी और दूसरे में 2001 तो हमने वर्ष 2001 को जारी रखा और उसके हिसाब से अभी संदीप 24 वर्ष पूर्ण कर चुका है।

जीवन और जीवन से जुड़े अन्य सभी मुद्दों से संबंधित, पढ़ाई से संबंधित, लोगों के साथ संबंधों से संबंधित अनेक बातें हैं, उनके अनेक कारण भी हैं, जो सबकुछ बताना शायद अभी इतना महत्वपूर्ण नहीं है।

शिक्षा की बात करें तो संदीप अपनी कक्षा में अक्सर पहले, दूसरे या तीसरे स्थान पर ही आता था। फिल्मों में देखा था कि कुछ आतंकवादी हैं जो मासूम और बेगुनाह लोगों को मारते हैं, यह देखकर चौथी या पांचवी कक्षा में एक निर्णय लिया था कि मुझे आर्मी में जाना है और उन सब आतंकवादियों को खतम करना है जो निर्दोष लोगों को मारते हैं। संदीप को किसी तरह यह समझ आया कि उसके लिए पढ़ना पड़ेगा और शरीर भी मजबूत रखना पड़ेगा तो तब से ही वह दिल लगा के पढ़ता और अक्सर उठक बैठक लगाना, पुशअप लगाना, दौड़ लगाना जैसी हरकतें करता था। शायद इसी कारण वह पढ़ाई के मामले में कक्षा के अन्य सभी लोगों से अक्सर आगे रहता और इसी बात के लिए लोग उसका सम्मान भी करते। हम तीन दोस्त ज्यादातर साथ रहते थे तब छठी कक्षा में एक बार एक दोस्त ने हम दो दोस्तों से कहा कि जो ज्यादा पुशअप लगाएगा उसे वह एक रुपया देगा। तो उसमें संदीप विजयी हुआ था और उसने शायद 20 पुश-अप लगाए थे।

ज्यादा विस्तार में यहाँ मैं जाऊंगा नहीं इसलिए संक्षिप्त में बताता हूँ।

आर्मी में जाने का यह सपना 10वीं कक्षा तक रहा, दो साल उसके लिए इन-सी-सी (NCC) भी की, कई दिक्कतें भी आईं लेकिन जैसे-जैसे दुनिया थोड़ी समझ आने लगी तो उसके बाद आर्मी में जाने का सपना छोड़ दिया और तब संदीप ने फैसला लिया कि वह सी.ए. (Chartered Accountant) की पढ़ाई करेगा। उसके लिए 11वीं कक्षा में उसने कोमर्श विषय चुना। पढ़ाई में खूब मेहनत की क्योंकि उसको बताया गया था की पढ़ाई के माध्यम से ही तुम अपना रास्ता बना सकते हो। 12वी कक्षा में खूब मेहनत की क्योंकि उसी से फैसला होने वाला था कि आगे क्या होना है? किन्तु परीक्षा के दौरान ही एक समस्या आ पड़ी जिसके कारण परीक्षा के दौरान ही उसने 8-10 दिन तक मन को परेशान किया, बहुत समय ले लिया और अंततः इछावर शहर छोड़कर संदीप को वापस घर आना पड़ा और बचे हुए तीन विषयों की परीक्षा की तैयारी उसे घर रहकर ही करनी पड़ी। परीक्षा के दौरान किसी व्यर्थ के मुद्दे का मस्तिष्क पर चड़ना, अचानक स्थान बदलना जैसी घटनाओं ने वर्ष भर की पढ़ाई को कुछ हिला दिया था लेकिन फिर भी अच्छे से पढ़ाई की और परीक्षा दी। वर्ष भर पढ़ाई की थी यह सोचकर कि राज्य में पहला स्थान अगर ले आऊँ तो शायद आगे की पढ़ाई की व्यवस्था आसानी से हो जाएगी लेकिन वैसा नहीं हुआ और संदीप जिले में प्रथम तक पहुँच पाया।

मगर सी.ए. तो करना था क्योंकि अभी इस नालायक को पूरी जानकारी और ज्यादा समझ नहीं होने के कारण ऐसा लग रहा था कि सी.ए. करके यह समाज की उन समस्याओं, बुराइयों और कमियों को ठीक कर पाएगा जो इसे दिखाई देती हैं और सी.ए. करने के लिए यह निकल पड़ा इंदौर। लेकिन वहाँ जाने के दौरान और पहुंचकर पहले ही दिन इसने जिस दुनिया को देखा, उसने इसके होश उड़ा दिए, इसका पूरा अतीत हिल गया क्योंकि उससे पहले यह कभी अपने गाँव से ज्यादा दूर नहीं गया था, दुनिया का बहुत पता नहीं था क्योंकि आजतक सारा समय केवल पढ़ाई इत्यादि में ही लगाया था। एक-दो बार एन.सी.सी. के मामले में जरूर यह भोपाल गया था।

फिर सी.ए. की पढ़ाई के दौरान इसे दुनिया का कुछ खेल समझ आने लगा। उधर पैसा था, शायद मान सम्मान भी था, पहचान भी थी लेकिन उसे समझ आ रहा था की आज़ादी नहीं थी और बिना आज़ादी के जिन्दगी नहीं होती। उधर काम था लेकिन उससे सिर्फ़ अपने और अपने परिवार के ही निजी स्वार्थों की पूर्ति हो सकती थी लेकिन समाज की किसी भी समस्या का मूलभूत समाधान नहीं हो सकता था। इस तरह जब वह राह भी सही नहीं लगी और उसे भी बीच में ही छोड़ दिया और वहाँ से होते हुए यात्रा आज यहाँ पहुँच गई है जहाँ आज वह है। इस सबके दौरान बहुत कुछ हुआ और जीवन शायद यही है कि हम आगे बढ़ते रहें, जहाँ जो राह सही समझ आती है उसपर आगे बढ़ें और जब वह आपको और अधिक ऊपर उठाने में असमर्थ हो जाए या उससे बेहतर राह नज़र आए तो बिना समय, ऊर्जा और संसाधन गंवाए उससे आगे बढ़ जाएं।


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