दोहा:
मन की पीड़ा कैसे कहूं, शब्द न सुझे कोय।
प्रीतम सुधी में मन दुखी, चुपके चुपके रोय।।
अचिंत्य:
कबीर साहब कहते है मन की पीड़ा कैसे कहूं, शब्द न सुझे कोय। प्रीतम सुधी में मन दुखी, चुपके चुपके रोय।। अब क्या करें अपने अंदर की दशा को अगर बताना है तो उसका वर्णन करना है तो शब्दों का इस्तेमाल तो करना पड़ेगा अन्यथा ला-ओत्जू कहते है कि जहां तुमने नाम दिया नहीं कि तुमने उसे सीमित कर दिया। खो जाएगा नाम देते ही पर साधु, संत, फकीर, कबीर साहब अब आप जाकर इनसे पूछो कि आप तो साधु हो, संत हो, सन्यासी हो, जगत से मुक्त हो, संसार से ज्यादा लेना देना नहीं तुम्हे, कम से कम कोई स्वार्थ नहीं है संसार से, फिर दुःखी काहे को हो? तो वर्णन करना है,कुछ बताना है, तो शब्दों का इस्तमाल वो करते है। तो जिसके लिए वे दुखी है उसको वो कभी प्रीतम कह देते, कभी उसे अपनी प्रेमिका कह देते, कभी उसको ईश्वर, कभी उसे परमात्मा, कभी उसे राम, कृष्ण कह देते। कभी आनंद में कोई नाम दे दिया, कभी दुख के गीत गाने हो, कभी आनंद के गीत गाने हो तो शब्द इस्तमाल करने पड़ते हैं तो यहां पर कबीर साहब जब कह रहे है कि प्रीतम सुधी में मन दुखी, चुपके चुपके रोय। मन यानि कौन? मन यानि वह दुखी है। मन कह करके उसको संबोधित किया जा रहा है जो दुखी है और प्रीतम यानि जो उस मन को चाहिए जो दुखी है।
प्रीतम सुधी में मन दुखी, चुपके चुपके रोय। तीन हैं, कौन? तीन हैं, एक है प्रीतम, एक है प्रेमिका। प्रीतम तभी है जब प्रेमिका है तो एक है प्रेमिका, प्रेमिका यानि दुखी, दुखी यानि मन। प्रेमिका यानि मन, मन यानि दुखी ये तीनों एक है और एक है प्रीतम यानि वह जो मन को चाहिए। मन को जिसकी गहरी से गहरी चाहत है वह प्रीतम है और तीसरा क्या है दुख। एक है दुख, एक है दुखी और एक है वह जो दुखी को चाहिए पर वास्तव में ये तीन नहीं हैं। दुख, दुखी और प्रीतम ये तीन नहीं हैं जो तीसरा है प्रीतम उसकी कोई छवि नहीं, बना मत लेना और जो दो है दुख और दुखी वो है ही नहीं। आयेगी समझ आएगी आपको बात, ध्यान से सुनिए।
एक छोटी-सी कहानी हम रचते हैं। तो हमारा घोचू बच्चा है अभी अभी पैदा हुआ और अपने ही जैसे उसने अपने दोस्त बना लिए। कर रहे थे ऊट-पटांग हरकत, मस्ती तो जाकर गिरे एक ऐसे गड्डे में जो गंदगी से भरा हुआ था। तो अब जो सामने खड़ा है वो कौन है? वो है गंदा घोचू, गंदा शरीर, मैला शरीर या मन और उस गंदगी के कारण तन से उठ रही है खुजली माने पीड़ा ये है दुख। बच्चा है भाग रहा है किधर जाए। मम्मी को बताए कैसे? कैसे जाए उसके सामने कि तूने मुझे नहला कर भेजा और मैंने देख क्या दुर्गति कर ली अपनी। मुझ मूरख को समझ नहीं आया कि ना तो ऐसी दोस्ती ठीक, ना इस गड्डे में कूदना ठीक पर किसी तरह जाता है घर। उसे नहलाया जाता है।
ये जो जल है, जिससे नहलाया जा रहा है, ये आत्मज्ञान है। बताया जा रहा है उसे कि देख यह हालत है तेरी। ये है तेरी हकीकत इससे तुझे खुजाल चल रही है। इसको गंदगी कहते है और ये आकर जब चिपक जाती है तन से तो तन को पीड़ा देती है गंदगी, गंदी नहीं है मगर उसके साथ गलत संबंध पीड़ा, दुख पैदा करता है। अब क्या होगा? जल से नहलाने के कारण गंदगी गायब और गंदगी गायब हो गई तो गंदा शरीर भी गायब हो गया तो गंदगी, गंदा शरीर तीनों एक है और उस गंदगी के कारण जो खुजली हो रही थी, जो पीड़ा हो रही थी वो पीड़ा भी गायब हो जाती है। ना तो गंदा तन रहा, ना उसके कारण होने वाली पीड़ा रही यानि ना तो दुखी रहा माने मन और ना ही दुख बचा और बच्चे को जिस तीसरे की पुकार थी उस पीड़ा के दौरान वह क्या था वह कोई आसमानी में बैठा काल्पनिक परमात्मा नहीं था, कोई काल्पनिक प्रीतम नहीं था। हां उसको प्रीतम कहा। वो कह रहा था मुझे प्रीतम चाहिए। प्रीतम चाहिए नहीं। प्रीतम तुझसे दूर कहा। तू ही प्रीतम है तेरा, तुझसे बाहर तेरा प्रीतम नहीं है।
बस तू जिसे कुछ और है उसे अपना समझ बैठा है। जो तूने पकड़ रखा है अपना समझ कर, मैं समझकर उससे आजाद हो जा। तो उसे नहलाया गया। गंदगी गायब, खुजली गायब और पानी भी बह गया। बच्चा मस्त। पानी माने वो जो सफाई कर रहा था जल, वो भी सुख गया। रोज नहाता है अब क्योंकि गंदगी तो रोज रोज लग सकती है ना थोड़ी बहुत तो। तो नहाना जरूरी है नहीं तो इक्कठी हो जाएगी। तो ये जो गंदा शरीर है आपका मन है। जो परेशान है, जो पीड़ा में है और गंदा होने के कारण पीड़ा है, ये पीड़ा दुख है और इस मन को जो चाहिए वो क्या है? बाहर से कुछ नहीं चाहिए। कोई तीसरा नहीं चाहिए। नाम उसे दे दिया जाता है मगर वो तीसरा कोई बाहर से नहीं आएगा। तीसरा वही है। आपको जो चाहिए वो क्या चाहिए? इस गंदगी से मुक्ति चाहिए, इस दुख से मुक्ति चाहिए तो दुख से मुक्ति कैसे मिलेगी? दुखी की सफाई करके। दुखी बड़ा गंदा बैठा है। दुखी की सफाई कर दो।
कबीर साहब कह रहे है मन की पीड़ा कैसे कहूं, शब्द न सुझे कोय। प्रीतम सुधी में मन दुखी, चुपके-चुपके रोय।।
मन है प्रेमिका, जो दुखी है। उसे जिसकी आस है वो प्रीतम, जो उसको चाहिए और हमने कहा क्या चाहिए उसे? अपने ही दुख से मुक्ति। ऐसा नहीं है कि कबीर दुखी नहीं है, ये मत सोचना। कबीर को दुख है मगर इसलिए नहीं कि आज तो खाना नहीं मिला, अरे! फलाने ने ऐसे दो शब्द कह दिए, अरे! उसने अपमान कर दिया, अरे! क्या करे हमारे पास तो झोपड़ियां है टूटी-फूटी। कबीर इस बात का रोना नहीं रो रहे है कि मेरे पास झोपड़ी है, खाने को नहीं है, दिक्कत आती है बहुत, कोई इज्जत नहीं देता, सम्मान नहीं देता, कोई कड़वे शब्द बोल देता है। ये सारी बातें नहीं है कबीर के दुख का कारण। अगर वे दुखी भी है तो बस उस एक मात्र के लिए जिसे वे प्रीतम कह रहे है।
मन को क्या चाहिए? मन अगर दुखी है तो उसे दुख से मुक्ति चाहिए। मुक्ति के लिए वो लालायित है। उसका दुख है कि कही एक तो नहीं है तो बस वही चाहिए और अगर मुक्त हूं तो कही छीन ना जाए, बस डर भी है तो इस बात का है। तो जिंदगी कैसे जियूं? कैसे फैसले लूं? फैसले वहां से आयेंगे कि ये जो मन है एक अभी अपने प्रीतम से, माने मुक्ति से दूर न होने पाए। तो दुखी कबीर भी है मगर उनका दुख बस एक है। इसका तात्पर्य ये बिल्कुल मत समझ लेना कि वो काम करना छोड़ देंगे जगत में, व्यवहार करना छोड़ देंगे बल्कि वो और अधिक संघर्ष करेंगे। कबीर साहब ने कितना संघर्ष किया होगा। एक आम आदमी क्या इतना घुमा होगा गांव-गांव, शहर-शहर, लोगों से इतनी बात की होगी क्या? तो ये मत समझ लेना कि वो कर्म नहीं कर रहा है, कर्म तो उसके माध्यम से होगा ही, वो संघर्ष में है जुझ रहा है। ये मत समझ लेना कि किसी चीज के लिए जूझ रहा है। उसे भी कुछ चाहिए इसलिए इतनी मेहनत करता है।
हम बड़े चालक लोग हैं। हम कहते है कि भईया देखो हम मेहनत कर रहे हैं कि हमें कुछ चाहिए। ये इंसान हम से भी ज्यादा मेहनत करता है तो शायद इसको भी बहुत कुछ चाहिए इस भ्रम में मत रहना उसको चाहिए तो बस वही एक मात्र। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए और तुम्हें भी वो वही देना चाहता है ताकि तुम सत्रह जगह जो खींचते रहते हो ना, तनाव कब होता है? उधर भी जाना है उधर भी जाना है किधर जाऊं समझ नहीं आ रहा, क्या करूं समझ नहीं आ रहा। ये कब होता है ऐसा? सामने जिंदगी है और जिंदगी के सामने सिर्फ एक रास्ता है तो क्या द्वंद्व होगा, क्या तनाव होगा, क्या परेशान होओगे, क्या ऐसा लगेगा कि किधर जाऊं किधर ना जाऊं। रास्ते पर चलते हो तब ऐसा क्या होता है? द्वंद्व, समस्या, तनाव ये सारी समस्याएं तब आती है कुछ समझ नहीं आ रहा, ये समस्या तब आती है जब सामने विकल्प होते है, जब सामने कई रास्ते होते हैं, यह भी कर लो, वह भी कर लो। इधर भी चले जाओ, उधर भी चले जाओ। इसको भी पकड़ लो, उसको भी पकड़ लो। कबीर साहब कह रहे है सारे द्वार बंद कर दो बस एक द्वार खुला रहे। एक रास्ता हो सारे रास्ते नकार दो। तो वो तो निर्विकल्प है उस पर चलने के लिए क्योंकि अंततः सारे रास्तों को घूम फिर कर आना वही है।
सारी दौड़ उसी प्रीतम की खातिर है। अलग-अलग रास्तों के माध्यम से तुम वही पहुंचना चाहते हो। नदियां पूरी पृथ्वी पर कोई इधर बह रही हैं कोई उधर बह रही हैं, कोई यहां से आड़ी-टेडी, ऊपर-नीचे बह रही हैं, कभी पतली धार कभी मोटी धार हर दिशा में नदियां बह रही हैं मगर अंततः तो उन्हें पहुंचना वही है समंदर में मिल जाना है। पहुंचना समंदर में ही है फिर चाहे तुम किसी भी दिशा में दौड़ों।
कबीर कह रहे है मन की पीड़ा कैसे कहूं, शब्द न सुझे कोय। जिस पीड़ा को तुम कह पा रहे हो ना, जिस पीड़ा का तुम बया कर पा रहे हो वह तुम्हारी असली पीड़ा नहीं है वह तुम्हारे दुख की जड़ नहीं है तुम्हारे दुख का कारण नहीं है। तुम्हारी असली पीड़ा तो ऐसी है जिसे बया करना भी मुश्किल है कैसे कहूं कोई शब्द नहीं है कहने के लिए। थोड़ा सा प्रयोग कर के देख लेते हैं। ध्यान से अपनी जिंदगी में झाकियें और नहीं तो एक कागज और लेखनी उठाइयें और लिखिए अपनी दस समस्याएं, बिल्कुल ईमानदारी से लिखिएगा
ऐसे लिखयेगा कि कोई आम व्यक्ति आकर के आपसे पूछे कि क्या चाहिए तुझे पत्नी पूछे, पिता पूछे, तुम्हारा बॉस पूछे, तुम्हारा दोस्त पूछे, कोई रिश्तेदार पूछे कि क्या चाहिए। किस चीज कि कमी है तब तुम जो बताते हो उनको, लिखो उसको। कम से कम दस लिखो। पूछो इसमें, देखो इसमें क्या कही तुम्हे मिलता है कि तुम कह रहे हो कि मुझे मुक्ति चाहिए। कही तुम लिखते हो कि मुक्ति चाहिए, आजादी चाहिए, मुझे चैन चाहिए, संतुष्टी। कही नहीं लिखोगे। कोई लिखेगा अच्छा सेपति चाहिए, कोई लिखेगा अच्छी पत्नी चाहिए, कोई कहेगा नौकरी चाहिए, कोई कहेगा पैसा चाहिए, कोई कहेगा प्रमोशन चाहिए, कोई कहेगा पद चाहिए, प्रतिष्ठा चाहिए, सम्मान चाहिए, कोई कहेगा आज केला नहीं खाया केला ला दे, कोई कहेगा कि पत्नी सुनती नहीं है कैसे काबू करूं, कोई कहेगी कि पति का शायद किसी के साथ चक्कर है मुझे आज पता लगाना है ये ही सब तो होता है जिसे हम जानना चाहते है हर दिन छोटी-बड़ी बातें। कोई कहेगा उससे बदला लेना है, मुझे उससे आगे निकलना है, मुझे ये कर के दिखाना है, मुझे वो पाना है ये हमारी कामनाएं हैं और यही हमारे दुख का कारण है, इन्हीं के कारण हम परेशान रहते है हर समय।
कबीर कह रहे है मन की पीड़ा कैसे कहूं, शब्द न सुझे कोय।
मन की पीड़ा कैसे कहूं, शब्द न सुझे कोय बताया नहीं जा सकता उस पीड़ा को, कैसे बताऊं। बताऊंगा तो समझोगे नहीं, तुम खुद अपने आप को देखो सकल देखो अपनी, अपनी हकीकत देखो। तुम्हे भी वो पीड़ा दिखेगी, फिर कहने कि आवश्यकता नहीं रह जाएगी। अपनी जिंदगी को देखो और देखो अपनी हारों को, देखो अपनी धोखों को कि इतनी दिशाओं में दौड़े। पत्नी नहीं थी पत्नी मिल गई, पैसा नहीं था पैसा मिल गए, नौकरी नहीं थी नौकरी मिल गई, बदला लेना था ले लिया, जो चीज चाहिए थी लेली, जो जानना था पति और पत्नी के बारे में जान लिया, पत्नी को काबू कर लिया, बच्चों पर धोस दिखा ली, जिस पर गुस्सा करना था कर लिया मगर फिर भी वो मिला नहीं। अब भी तलाश है कुछ चाहिए। देखो अपने इन धोखों को, जो खाए ह। अंततः हमारी सारी कामनाएं है उसी के लिए मगर जिन रास्तों से तुम उसे खोज रहे हो वहां सिर्फ भटकाव है।
कभी कभार उसकी झलक मिल भी जाती है मगर झलक ही मिलती है बस। तो देखो अपनी कामनाओं को और उस कामना के मूल में देखो कि उस कामना से अंततः तुम्हे चाहिए क्या? तुम पाओगे जो अंदर जो मूल है बेचैनी है, जो दुख है उससे मुक्ति चाहिए। कितनी इच्छा करते हो तुम कि मेरी ये कामना पूरी हो जाए और उस कामना को पूरा करने के लिए कितना संघर्ष करते हो? तुम्हे क्या लगता है, तुम्हे लगता है तुम्हे वो वो चीज चाहिए जिसकी तुम मांग कर रहे हो वो चीज चाहिए, वो वस्तु चाहिए, वो व्यक्ति चाहिए जो भी कामना है ऐसा हो जाए, वैसा हो जाए, ये जान लूं, वो पा लूं। तुम्हे ऐसा लगता है कि तुम्हे वो वस्तु चाहिए मगर वास्तव में क्या चाहिए? थोड़ा सा अपनी तरफ देखो तो समझ आएगा। पीछे देखो जहां से शुरुआत हो रही है कामना। इच्छा क्या है? वो चाहिए, तुम्हे वो चाहिए नहीं तुम इस इच्छा को पूरा करके इस इच्छा से मुक्त हो जाना चाहते हो तो तुम्हे इच्छाओं से, व्यर्थ कामनाओं से मुक्ति चाहिए और तुम सोच रहे हो कि उस कामना को पूरा करके मुक्ति मिल जाएगी कामना से, नहीं। उल्टा हो जाता है फिर।
आप एक कामना पूरी करते हो, उस कामना के पूरा होने के कारण उस कामना की पूर्ति से अनेक कामनाएं पैदा हो जाती हैं। जैसे तुमने कहा मुझे विवाह करना है अब पति हो या पत्नी तुम किसी को विवाह करके ले आए जीवन में, अब वहां से तुम्हारी और सारी कामनाएं पैदा होती है ना। अरे! बच्चे पैदा कर लिए, अरे! उसका खर्चा उठाना, अरे! उसकी बीमारी उसकी पढ़ाई, उसके कपड़े कितनी कामनाएं होंगी। फिर एक बड़ी सी तुमने गाड़ी खरीद ली। कोई कार या ट्रैक्टर या कोई मशीन। अब; अरे! उसके टायर चाहिए, अरे! उसकी सर्विसिंग करवानी है, अरे! उसको रखना कहां है उसकी व्यवस्था करनी है। खड़ी होती है ना नई कामनाएं तो एक कामना पूर्ति से अनेक अन्य कामनाएं पैदा होंगी और वो परेशान कर देती है जो तुम्हारी कामनाएं व्यर्थ होती है। इस आस के साथ है कि इनको पूरा करके मुक्ति मिल जाएगी। कामनाओं से जो गहरी कामना तुम्हारी जुड़ी होती हैं मुक्ति की, तब कामना पूर्ति तुम्हे कामना से मुक्त नहीं करती बल्कि और कामनाएं पैदा करती हैं। कामनाओं को पूरा करके कामनाओं से मुक्ति नहीं मिलेगी कामना की व्यर्थता को जानकर कामना से मुक्ति मिलेगी।
तो कबीर जब कह रहे है कि मन की पीड़ा कैसे कहूं, शब्द न सुझे कोय। प्रीतम सुधी में मन दुखी, चुपके-चुपके रोय।। जब ऐसा कह रहे है तो वे हमें यह भी बता रहे है कि इस भ्रम में मत रहना कि मन को संसार की कोई चीज चाहिए, नहीं। तुम्हारी ये उथली कामनाएं, वास्तव में तो तुम्हारी है नहीं। किसी प्रभाव से, किसी डर से, किसी संस्कार से, किसी मान्यता से, किसी संयोग से तुम्हारी कामनाएं उठ जाती हैं। ऐसे ही उठ जाती है ना। जिसे तुम अपनी कहते हो वास्तव में तो वो तुम्हारी अपनी है भी नहीं और दूसरी ये सोचना भी मत वो चाहे तुम्हारी भी हो तो भी उसके पूरा होने से तुम्हारी समस्या नहीं मिटेगी। तुम्हारे मन को कोई चीज नहीं चाहिए। मन को तो संसार से ही मुक्ति चाहिए। मन को संसार या संसार से3 कोई चीज नहीं चाहिए। मन को उस संसार से मुक्ति चाहिए। कौनसा संसार? वह संसार जो लगातार तुम्हारी खोपड़ी में भीतर दौड़ता रहता है, वो संसार जो तुम्हारे मन में घूमता रहता है जिसके कारण तुम परेशान हो और ये मत सोचना, ध्यान से देखो क्या जिसे तुम पूरा संसार कहते हो, पूरा ब्रह्मांड, पूरा जगत क्या वो सब कुछ तुम्हारी खोपड़ी में घूमता है? नहीं।
जिस संसार से तुम परेशान हो वो तुम्हारा व्यक्तिगत संसार है, जो तुम्हारी खोपड़ी में घूमता है। जो निर्मित हुआ है; स्वार्थ से, कामनाओं से, भय से, ईर्ष्या से, तुलना से, अनुभवों से, अतीत में खाई छोटो से, अपमानित हुए जिन बातों से, कही सम्मान मिल गया उन बातों से इन सब से तुमने अपना एक व्यक्तिगत संसार रचा है वही 'मैं' है, वही 'मन' है, वही है जो 'दुखी' है। तुम्हे उस दुखी से मुक्ति चाहिए। दुखी से मुक्त हो जाओ तो दुख से भी मुक्त हो जाओगे। तुमने उस संसार को पकड़ के क्यों रखा है? तुमने किसी से तुलना कर रखी है, क्यों? इतनी सारी कामनाएं खड़ी कर रखी है; दुनिया से, जगत से, लोगों से उम्मीदें लगा रखी हैं, क्यों? क्योंकि तुम्हे यह भ्रम है कि ऐसा अगर हो गया तो तुम्हे चैन मिल जाएगा मगर मन की पीड़ा यह है ही नहीं कि तुम ये करो, वो करो, ये पाओ, वो पाओ। मन को तो इन सब से ही मुक्ति चाहिए। ये जो संसार भरा है, जो खोपड़ी में घूमता रहता है यही आपका व्यक्तिगत संसार है और इसी में ही कुछ है जो आप पाना चाहते हो, वही तो घूमता है ना आपके मन में। जो चीज आप पर छाई रहती है लगातार वो कौनसी होती है? जिससे या तो तुम्हे कुछ चाहिए या जिससे तुम डरे हुए हो या फिर जिससे तुम ईर्ष्या करते हो, जिससे तुम तुलना करते हो। इसी तरह की चीजें मन पर छाई रहती हैं और उन सब से तुम जो चाहते हो कि ऐसा हो और ऐसा नहीं हो, ये हो जाए वो नहीं हो ये सारी बातें तुम्हे बस परेशान करेंगी और इनसे मिलेगा कुछ नहीं। जैसा चाहते हो वैसा हो गया तो भी कुछ नहीं मिलेगा। इसे कचरे की भांति ही त्याग दो, छोड़ दो। आजाद हो जाओ उससे। यही है जो चाहिए जिसके लिए मन दुखी है ये बोझ की गठरी जो सर पर ढौ रखी है उसको फेंको मगर हम और बड़ी मूर्खता करते है।
हम मन की पीड़ा को समझते नहीं क्योंकि मन में दुख होता है पीड़ा तन में होती है। हम मन के दुख को पीड़ा समझ लेते है या कम से कम है दुख और उसका इलाज हम करते हैं पीड़ा की भांति। पीड़ा होती है, मान लो छोट लग गई शरीर पर तो हम उस पर मरहम पट्टी कर देंगे तो ठीक हो जाएगी मगर मन पर इस तरह की मरहम पट्टी नहीं होती। तो मन की समस्या है दुख और हम उसका इलाज करते हैं तन की भांति। तो मन की पीड़ा को शांत करने के लिए आप क्या करते है आप तन को भोग लगाते रहते है। माने तन की सेवा करते रहते हैं। तन को आप वो सब देते हैं; सुख-सुविधाएं, संसाधन जो बड़ी गुलामी करके आता है, जो बड़ी तुलना करके आता है, ईर्ष्या करके आता है, जो दूसरों की टांग खींचकर के आता है वो सब तुम तन को सौपते हो पर वास्तव में तन को उन सबकी जरूरत नहीं है। तुम तन को वो सब सौंपते हो हो जो बड़ी हिंसा करके आता हैं। देखो तन को मांस नहीं चाहिए तुम मांस देते हो, हिंसा करते हो उसके लिए। हिंसा करके अपने अंदर के प्रेम और संवेदनशीलता को मार देते हो, जो कोमलता थी हृदय की वो खतम हो जाती है, कठोर हो जाते हो चैन कैसे मिले फिर तुम्हे। जब तुम हर तरह से हिंसा करते हो; लूटना, पीटना, किसी के हक का खा लेना, किसी का मालिक बन जाना उसको अपनी अंगुली पर नचाने कोशिश करना। मेरी औलाद है मेरे इशारों पर चलेगी वरना घर से निकाल दूंगा। ये क्या है? ये हिंसा है और तुम्हे ये भ्रम है कि तुम्हारी औलाद तुम्हारे हिसाब से चल लेगी तो तुम्हे शांति मिल जाएगी मगर ऐसा कभी नहीं होगा।
ये सब करके मन को कभी शांति नहीं मिल सकती। मन को जो चाहिए वो शांति, वो मुक्ति वो तो उसे इन सारी मूर्खताओं से मुक्त हो कर ही मिलेगी। तुम्हे आजादी चाहिए सामने वाले को भी आजादी चाहिए और तुम उसके मालिक बन रहे हो दूसरे का मालिक बन कर के तुम सिर्फ उसे गुलाम नहीं बनाते तुम भी उसके गुलाम हो जाते हो इसलिए उसका मालिक हो जाते हो उसके बाद भी तुम्हे चैन नहीं मिलता, तुम्हे आजादी नहीं मिलती। तुम मन की पीड़ा माने मन के दुख को मिटाने के लिए, उसे शांत करने के लिए तुम तन को भोग लगाते रहते है लेकिन वो जो भोग लगाते जा रहे हो तन को, तन के लिए जुटा रहे हो जो सुख-सुविधाएं उसकी खातिर मन के ऊपर न जाने कितने बंधन, कितनी गंदगी, कितना झूठ डालते रहते हो। कैसे फिर मन को प्रीतम मिले।
कबीर साहब कह रहे है कैसे कहूं मन की पीड़ा क्योंकि में पीड़ा कहूंगा तो तुम बस हंसोगे, तुम्हे समझ नहीं आएगी क्योंकि तुम्हारे लिए पीड़ा का मतलब ही यही है; ये नहीं है, वो नहीं है, ऐसा नहीं हो रहा, वैसा नहीं हो रहा वही सब मूर्खताएं। इसे तुम पीड़ा कहते हो जो पूरी हो भी जाए तुम्हारी कमियां तो भी कुछ मिलना। तो तीन है; दुख है, दुखी है यानि मन और प्रीतम। प्रीतम, मन और मन को जो चाहिए मगर हमने कहा कि प्रीतम वास्तव में कोई तीसरा नहीं है। ये तीन है मगर हम जिसे प्रीतम कह रहे है वो कोई तीसरा नहीं है उसकी कल्पना मत कीजियेगा, उसके बारे में छवि मत बना लीजिएगा कि अच्छा ईश्वर, अच्छा परमात्मा, अच्छा आत्मा और उसकी तुम कल्पना कर रहे हो।
जिसे ईश्वर, आत्मा, परमात्मा कहा जा रहा है, जिसे प्रीतम कहा जा रहा है वो वास्तव में कोई तीसरा नहीं है वो इन दो से मुक्ति ही है। इन दो से मुक्ति को तीसरा कह कर संबोधित किया जा रहा है प्रीतम कह कर संबोधित किया जा रहा है। दुख और दुखी के ना रहने पर जो रह जाता है वह तीसरा है वही एक मात्र है। दुख और दुखी का तो बस अनुभव होता है। दुख का अनुभव होता है। दुख का अनुभव क्यों होता है अज्ञान के कारण। दुख कब होता है अज्ञान के कारण। दुख सत्य नहीं है दुख सिर्फ अनुभव है जो अज्ञान से पैदा होता है, जो झूठी मान्यताओं से, झूठे ज्ञान से पैदा होता है तो जो है नहीं मगर अज्ञान के कारण बस अनुभव होता है जो तो वो तो हट गया, बचे दो; एक दुखी, एक जो उसको चाहिए माने मन, मन कह दो, मैं कह दो, अहम् कह दो जो भी नाम दो एक ही है वो तो मन बचा माने दुखी और एक वो जो उसको चाहिए मगर जब तक दुखी है तब तक दुख हटेगा नहीं क्योंकि दुख का मतलब ही है जो दुखी के होने से ही पैदा होता है जब तक दुखी है तब तक दुख है और मन क्या है? दुखी क्या है? कौन है दुखी? वही गंदा शरीर, शरीर नहीं गंदा शरीर है जो दुखी है जो मन है।
आपने देखा आप बेहोशी में कह देते है अरे! मन के विचार शांत कैसे करे? हम सोचते रहते है। क्या विचार, क्या सोचना क्या सचमुच समस्या है? नहीं। समस्या क्या है? समस्याएं जो है ना आपकी जिंदगी में उनके बारे में जब सोचते हो ना तब तुम कहते हो कि विचार कैसे शांत करें अन्यथा तुम्हे जहां कोई समस्या नहीं होती है उन विचारों से तो तुम्हे परेशानी नहीं होती। उनका तो तुम नहीं कहते कि ये विचार खत्म हो जाए। घर जाते हो, कही और जाते हो रास्ता तो मालूम होना चाहिए ना उसका भी तो विचार करते हो, किसी को बताना है तो विचार करके ही बताओगे न सोच करके स्मृति से, क्या वो परेशान कर रहे हैं विचार? नहीं। समस्या विचार नहीं है वो जो गंदगी लग गई है तन पे, वो समस्या है। तो दुखी कौन है? ये व्यक्तिगत संसार। यही तो है वो गंदगी जो भर रखा है आपने जो आपके झोपड़े में घूमता रहता है जिससे आप परेशान हो उससे मुक्त होइए। वही है जो दुखी है और जिसके कारण दुख पैदा होता है जो तो जो दुखी है मन उसको चाहिए क्या?
दुख से मुक्ति और दुख से मुक्ति कब मिलेगी? जब दुखी मरने को तैयार हो। दुखी कहे कि मैं मिटने को तैयार हूं। दुखी ही तो उसका दुख है। दुखी ही दुख है। गंदगी ही तो खुजली है ना। खुजली पहले थोड़ी ना आई पहले गंदगी आई है। गंदा शरीर पहले हुआ। तो पहले गंदा शरीर आया फिर खुजली आई। गंदगी अपनी जगह पर रहे तो कोई समस्या नहीं। शरीर और गंदगी जब मिल जाती है तो उससे खुजली पैदा होती है। उसी तरह से आप, मैं जाकर जब उस गंदगी से मिल जाता है जो आपकी खोपड़ी में घूमती रहती है तब दुख पैदा होता है तो दुख का अंत कब होगा? जब दुखी का अंत हो जाएगा और दुखी माने ये जो गंदगी लग गई है, ये हट जाए तो इस दुखी को क्या चाहिए। कौनसे प्रीतम को ये पुकार रहा है? इस दुख से मुक्ति को वो पुकार रहा है दुख से मुक्ति को प्रीतम कहते है, कहा जा रहा है। दुख से मुक्ति को ही आत्मा कहते है और यह निर्भर करता है आपकी ईमानदारी पर, आपकी नीयत पर या सीधे सीधे कहो तो आपके प्रेम पर कितना प्रेम है आपको मुक्ति से, जितना प्रेम है उतना आप इस गंदगी से मुक्त होने को तैयार है उस मुक्ति से जितना गहरा प्रेम होगा उतना आप उस गंदगी को हटाने में जो घिसना पड़ता है उस दर्द को सहने को तैयार होंगे, दर्द तो होगा। गंदगी अगर लगाई है तन पर तो घिसना पड़ेगा, धोना पड़ेगा तो, दर्द तो होगा ना। मन पर जो गंदगी लगाई है वो और ज्यादा पीड़ा देगी मगर मुक्ति से जो प्रेम है वो सब करवा देता है और प्रेम आप सबको है तलाश उसी को रहे हो आप मगर धोखे में भी रख रहे हो और ये आपका चुनाव है।
अब आप देखिए कि आपको धोखे में ही रहना है, भटकते ही रहना है या सफाई करनी है और सफाई हमने कहा उसका अंत नहीं होता है। हां बहुत ज्यादा लगी है आज नहा लिए मगर नहाते रहना है। नहाते रहेंगे तो सफाई रहेगी अन्यथा गंदगी आकर के जैसे तन पर लग जाती है वैसे मन पर लगती रहती है उसकी सफाई करते रहो, जब तक सफाई करने की ताकत है, सफाई करने की शक्ति है तब तक करते रहो और वहां पर तन की शक्ति कम चाहिए आत्मज्ञान की शक्ति चाहिए, आत्मज्ञान से स्वयं को जान कर, स्वयं को समझ करके। अब ये मत पूछना कैसे जाने? ये चर्चा जो हमने करी वो क्या है? इसी को आत्मज्ञान कहते है; हम स्वयं पर नजर डाल रहे हैं, स्वयं को देखने का प्रयास कर रहे हैं कि हकीकत क्या है हमारी, क्या है हमारे दुख, क्या है हमारे दुख का कारण? यही तो समझ रहे है। इसी तरह देखो, ध्यान दो स्वयं पर, अपने जीवन पर, अपने व्यवहार पर, अपने संबंधों पर, अपने काम पर, अपने चुनावों पर, अपनी कामनाओं पर, जिन बातों से परेशान हो उन पर तो समझ आएगा।
अवलोकन से, ध्यान देने से ही आत्मज्ञान होता है, आत्मज्ञान से ही खुद के बारे में समझ आता है और फिर जो आप निर्णय करते है वही से फिर आगे की गति होती है जो भी है। ठीक।
मन की पीड़ा कैसे कहूं, शब्द न सुझे कोय।
प्रीतम सुधी में मन दुखी, चुपके-चुपके रोय।।